शुक्रवार, 7 मार्च 2008

खदनिया /उमरानाला की बात (१२)

बहुत पहले उमरानाला की एक अलग ही तरह की भौगोलिक पहचान हुआ करती थी , वो थी गांव मे जगह जगह खदनिया । खदनिया यानि एक बड़ा सा गड्ढा । गांव मे जगह जगह मौजूद इन खदनिया के अलग अलग नाम भी थे ,जैसे बस स्टैंड की खदनिया ... बाज़ार चौक की खदनिया जामरोड की खदनिया ,बड़े स्कूल की खदनिया रेलवे स्टेशन की खदनिया , बैल बाज़ार की खदनिया ......एम पी ई बी की खदनिया आदि । एक तरह से ये खदनिया हमारे गांव मे अलग अलग जगह के नाम बन गई थी ..ठीक वैसे ही जैसे किसी बड़े शहर मे स्थानों रास्तों को महापुरुषों या किसी और नाम से जाना -पहचाना जाता है । बारिश मे ये बड़े गड्ढे जब भर जाते थे तो ये खूबसूरत छोटे छोटे तालाबों का नज़ारा बनाते थे । इन गड्ढों के आस पास बेसरम (बेशरम) के पेड़ थे । इनके सफ़ेद गुलाबी नीले फूल , जो जाने अनजाने इसकी सुन्दरता मे चार चांद लगाते थे । इन के अन्दर मेढक की टर्र टर्र खदनिया के माहौल को संगीतमय बनाती थी । कुछ परिवार खदनिया मे बतक पालन भी करते थे । तैरती बतक देखना मुझे भाता था
बारिश के दिनों मे घर के लोग हमे इन गड्ढों के पास जाने नही देते थे क्योंकि इनके अन्दर पानी के सांप (पनियल सांप ) बिच्छु आदि होने का डर रहता था .कभी कभी घर वालों की बात को अनसुना कर हम इन छोटे तालाब मे काग़ज़ की नाव बहाते थे .ये खेल मुझे सबसे ज़्यादा पसंद था .लेकिन इसे खेलने का मौका हमे कम ही मिल पाता था। सर्दियों ओर गर्मी मे खदनिया खेल का अदद मैदान बन जाती थी .नदी -पहाड़ जैसे ग्रामीण खेल हम इनमे खूब खेला करते थे । हमने इन गड्ढों के अन्दर क्रिकेट भी खेला । सार्वजनिक आयोजनों के लिए भी इन बड़े गड्ढों का इस्तेमाल होता था । और गर्मी के दिनों मे गाँव मे आने वाली नाटक मंडली ....सर्कस टूरिंग टाकीज़ भी खदनिया मे अपना डेरा जमाती थी । कुछ लोगों के पते भी इनसे जाने जाते थे .जैसे श्री जाम रोड की खदनिया के सामने,उमरानाला पिन कोड ४८० १०७ (मध्य प्रदेश) व कभी कभी शादी आदि के समारोह मे विवाह स्थल के रूप मे भी खदनिया का उल्लेख होता था जैसे हमारा निवास रेलवे स्टेशन खदनिया के पास उमरानाला ४८० १०७ (मध्य प्रदेश)
जिन लोगो के घर खदनिया के पास थे वे खदनिया का इस्तेमाल कभी कभी दैनिक क्रिया के लिए भी कर लेते थे । खदनिया के आस पास लोगो की चौपाल भी खूब जमती थी । पूनम की रात मे खदनिया के अन्दर चांद का दीदार मुझे अच्छा लगता था । पानी के भीतर पत्थर फैंक कर उठने वाले भंवर देखना भी मुझे प्रिय था .हम इसे रोटी खाने का खेल कहते थे पत्थर फैकने पर जितने भंवर उठे उतनी रोटिया खाई । फिर दूसरा खिलाड़ी पत्थर फैंक कर पानी रोटी गिनता था .जिसके सबसे ज़्यादा भंवर वो ही इस खेल मे जीतता था । छीन्द के पेड़ का प्रतिबिम्ब खदनिया मे बेहद सुंदर लगता था ।
दरअसल, खदनिया की बड़ी तादाद हमारे गाँव को सुंदर बनाती थी । ये हर रूप मे मुझे प्रिय थी .... पानी से भरी हुई, कीचड से सनी हुई या फिर बारिश का इंतजार करती सूखी खदनिया .बाद मे धीरे धीरे नए मकान बनने के कारण ये खदनिया लुप्त होती गई ....इनके रूप मे पते भी लापता होते गए .......रोटी गिनने , इनमे नदी- पहाड़ का खेल भी खत्म हो गया !!

6 टिप्‍पणियां:

umesh chaturvedi ने कहा…

badhia blog hai.

Kalim Shibli ने कहा…

Dear Amitabh aap ki rachna pad kar na chate hue bhi apne purane waqt ki yaad aahi jati aur phir dil apne gaon jane ko chata hai.. Aap se aage bhi ishi tarha ki rachnaon ki umeed main bhawishye mai karunga aur aap ke safal hone ki kamna karunga..

Aap ka shubhchintak
kalim shibli

karmowala ने कहा…

अमिताभ जी शायद आप दिल्ली की सडको की बात कर रहे हो जहा अक्सर खादनिया के बीच से सड़क पर चलना पड़ता है फ्हिर भी यह भारतीये गांवों की सच्ची कहानी है

Prabhakar Pandey ने कहा…

बढ़िया. बहुत ही अच्छा लिखते हैं आप।

Yunus Khan ने कहा…

वो दौर याद आया जब हम उस इलाक़े में रहते थे । बहुत शुक्रिया । कुछ बरस हमने छिंदवाड़ा में बिताए हैं

अभी इण्डिया ने कहा…

काश ऐसा हो! कि फिर उन बचपन के दिनों मे लोटा जा सके और फिर से उन पुरानी यादो को तरो ताज़ा किया जाए. पर आज के मशीनीकरण के इस युग मे हम इतनी जल्दी बड़े हो गए कि मास्ब ...कि छड़ी को भूल गए...भूले तो भूले साथ मे याद रह गए वो अनछुए पल कागज कलम दवात मुलतानी मिटटी के साथ मे तख्ती का वो हथियार ... बस यादें रह गयी तो ... ग़ज़ल कि उन पंक्तियूं मे बस सुन पाते है...
वो कागज़ कि कश्ती वो बारिश का पानी ....
या
पापा कहते थे बड़ा नाम करेगा...
अभी बस अल्पविराम देना चाहूंगा कि आगे जल्द ही टिपण्णी दे सकूं ...ब्लोग के लिए साधुवाद के पात्र हो अमिताभ जी .