शनिवार, 31 मई 2008

टूरिंग टाकीज़ (१) /उमरानाला की बात (२१)

उमरानाला में गर्मियों की छुट्टी में टूरिंग टाकीज़ आती थी । ये वो दौर था जब उमरानाला में टेलीविज़न विडियो जैसे मनोरंजन के साधनों का आगमन नही हुआ था .उमरानाला से लगभग तीस किलो मीटर दूर रामकोना के सृष्टी मेले में अमरावती ,नागपुर जैसे शहरों से टूरिंग टाकीज़ आती थी .सृष्टी मेला खत्म होने के बाद ये घुमंतू चलचित्र घर हमरे गाँव में पूरी गर्मियों के लिए डेरा लगा लेते थे । कई बार ये टाकीज़ खदनियाँ के गड्ढे में अपना डेरा लगाती थी ..इसलिए इनको गाँव की आम बोलचाल की भाषा में हम गड्ढा टाकीज़ भी कहते थे .अपने बचपन में मैंने इन टाकीज़ में खूब फिल्में देखी .हम बच्चों के लिए इनका आना एक मेले की तरह होता था .
गाँव
की रौनक भी इनसे बढ़ जाती थी ..क्योंकि आस पड़ोस के गाँव से भी सिनेमा देखने के लिए लोगो का ताँता लगा रहता था .टूरिंग टाकीज़ के इर्द गिर्द दुकाने भी लग जाती थी .अक्सर गाँव में ये टाकीज़ बाज़ार चौक में ही लगती थी । बाज़ार चौक हमारें घर के पीछे ही है ..इसलिए शाम के वक्त हम सभी टाकीज़ के आस पास खूब खेल खेलते थे । और शाम के शो का वक्त होते ही हम घर से पैसा लेकर फ़िल्म देखने चले जाते थे । टूरिंग टाकीज़ में बीच में परदा लगाया जाता था इस एक तरफ़ पुरूष और दूरी तरफ़ महिलाएं बैठकर फिल्मों का आनंद लेती थी । अमूमन तीन तरह की टिकट होती थी ..कुर्सियों पर बैठकर फ़िल्म देखने का पांच रुपया लगता था ..जबकि दरी पर तीन रूपये की टिकिट थी जबकि ज़मीन पर मात्र दो रूपये लगते थे
ज़मीन पर बैठकर फ़िल्म देखने वाले लोग अपने घरों से बोरे चादर लेकर आते थे । फ़िल्म शुरू होने से पहले शाम के वक़त भोपूं पे टाकीज़ वाले गाने बजाने लगते थे ....साथ ही दिनभर गाँव गाँव घूम कर ये लोग फ़िल्म का प्रचार भी करते थे । इनके प्रचार का तरीका भी बड़ा ही अनोखा होता था ..अगर कोई धार्मिक फ़िल्म लगी है तो ये लोगो से कहते की "बाज़ार चौक में आज मिलेंगे आपसे आकर ख़ुद घनश्याम ,मधुसूदन टाकीज़ में देखिये महान फ़िल्म कण कण में भगवान् " मसाला फिल्मों के लिए भी ये अपने अंदाज़ में प्रचार करते थे । मारधाड़ से भरपूर ..हम लोग अक्सर इनकी नक़ल भी उतारते थे .कई बार इनके पीछे पीछे हम भी दूर दूर तक चले जाते थे . टूरिंग टाकीज़ वाले शनिवार के बाज़ार के दिन चार शो दिखाते थे ..क्योंकि इस दिन हमारे गाँव में बाज़ार भी भरता था ।
जबकि रविवार के दिन परिवार वालों के लिए पारिवारिक सामाजिक फिल्में विशेष तौर पर लगाई जाती थी । हम लोग यहाँ फिल्मों को देखने के बाद उनके सवांद फिल्मी गानों मार धाड़ के दृश्यों की नक़ल उतारते थे .मैं अक्सर अपने बड़े भाइयों के साथ सिनेमा देखने जाया करता था । टूरिंग टाकीज़ में लगी फिल्मों का असर गाँव की गली गली कुचे कुचे में दिखाई देता था .भक्तिमय फिल्म लगने के बाद पूरा गाँव धर्म के रंग में रंग जाता था ..गाँव की महिलाओं की आवा जाही मंदिरों में बढ़ जाती थी .वहीं रोमांटिक फिल्मों का असर उस दौर के नौजवानों पर बखूबी पड़ता था । प्रेम प्रसंगों की गाँव में बाढ़ सी आ जाती थी ।
लेकिन हम बच्चों पर तो एक्शन फिल्मों का ही ज़्यादा असर होता था । फिल्मों पर चर्चा चौपालों में भी होती थी । लोगों की सामाजिक समरसता भी इस दौरान बढ़ जाती थी ..कई बार हमारें घर में फ़िल्म शुरू होने से पहले दूर दराज की चाचियों आंटियों की महफ़िल जम जाती थी । फ़िल्म शुरू होने से पहले कई बार हमे टिकिट लेने के लिए भेज दिया जाता था ..इसके बदले हमारा भी फ़िल्म देखने का इंतजाम हो जाता था । कई बार हम टूरिंग टाकीज़ के गेट कीपर से लेकर प्रोजेक्टर के ओपरेटर से भी दोस्ती जमा लेते थे ....इससे हमे फिल्मों की टूटी रील सिनेमा के पोस्टर स्टीकर आदि मिल जाते थे । गाँव में आने वाली टूरिंग टाकीज़ में नीलकंठ टूरिंग टाकीज़ और मधुसूदन टाकीज़ मुख्य थी ।
(जारी है .....)

5 टिप्‍पणियां:

chavannichap ने कहा…

chavanni ise apne blog par dena chahta hai.aap ki anumati mile to chavanii ko khushi hogi.
http://chavannichap.blogspot.com/
email-chavannichap@gmail.com
anumati is mailid par bhej den.

Udan Tashtari ने कहा…

रोचक.

Chhindwara chhavi ने कहा…

गाँव में आने वाली टूरिंग टाकीज़

गुड जानकारी ...

karmowala ने कहा…

अमित जी हम दिल्ली मैं ही रहे इस लिए इस तरह का कोई विशेह अनुभव नहीं लकिन ये रोचक जरूर है क्युकि एक बार मैंने भी पार्क मैं बेटे कर दया सागर नामक ईसा मसीह की चलचित्र देखा था जो आज भी मुझे इस तरह का आयोजन करने के लिए प्ररित करता है लकिन संभवतया आज के वक़्त मैं लोगो विसुद मनोरंजन प्रधान करना टेडी खीर है मेरे माता -पिता लो जरूर इस तरह के सामुहिक आयोजन को देखने का मोका मिला इसी तरह कटपुतली और एनी आयोजन होते थे अपने बच्चो को टीवी जैसी बीमारी से बचाने के लिए आज फिर से ऐसे आयोजन की आवश्यकता है

vikas ने कहा…

wah bhiaya maza aagya... woh dhundhali si yaade reh gayi hai ab mere zehan me... jo kiya tha Guzaara haqikat me hamne..wo pyaari yaade ..Bachpan ki wo baaten..Aao milkar Jeevan ki sachhai ko zhanke...!