गुरुवार, 20 मार्च 2008

कोल्ड वार /उमरानाला की बात (१४)

आलोक और मैं साथ मे स्कूल जाते थे .कभी आलोक मेरे घर आता कभी मैं उसके घर जाता । मिडिल स्कूल मे दोपहर के बाद हमारी पूरी छुट्टी हो जाती थी । घर आने के बाद मैं और आलोक दोपहर के वक्त घंटो पुलिया पे बैठकर दुनिया भर की बातें करते थे .कई बार लोगो को अचरज भी होता था .....भरी गर्मी की दोपहर मे हम पुलिया पर बैठकर क्या करते हैं? रात मे भी हम घंटो पुलिया पर बिताते थे ......हमारी बातों कभी कभी कोई सिर पैर नही होता था ....दुनिया जहान की बातें काम की बातें ..फिजूल बातें । घर के लोगो की भी डांट फटकार और कभी कभी आलोचना का भी हम शिकार बनते थे .....हमे गप्पी गपोडे जैसे अलंकारों से हमे नवाजा जाता था । लेकिन इससे हम पर कभी कोई फर्क नही पड़ा .....पुलिया पर फुरसतिया चिंतन का क्रम चलता रहा ।
मेरी नज़र गाँव की मेन रोड पर बनी पुलिया देश दुनिया के साथ हमारे संबंध को जोड़ने का एक बड़ा पुल थी । एक बार (ये शायद कक्षा ६ वी की बात है) आलोक और मेरे बीच किसी बात को लेकर लम्बी बहस हो गई .उसके बाद अलोक और मेरे बीच बातचीत एकदम बंद हो गई .....बातचीत बंद होने के बावजूद हम साथ मे स्कूल जाते थे .....स्कूल से पुलिया भी जाते थे ......वहां घंटो बैठते थे । दरअसल इस तरह के कोल्ड वार मे कभी आलोक मौन व्रत धारण कर लेता था तो कभी मैं बस केवल घर वालों के सामने ही हम बात करते थे । एकांत मे एक पक्ष बिल्कुल चुप हो जाता था । बाद मे किसी बात पे फ़िर बात शुरू हो जाती थी .....कोल्ड वार के कारणों की फ़िर पुलिया पर ही बैठकर हम चीर फाड़ करते ....बातचीत बंद होने की वजह को खोजते ...और लगभग एक हफ्ते तक हमे बातचीत का मुद्दा मिलजाता था । ये वाकई दिलचस्प होता था ...आज भी सोच कर हैरान होता हूँ ....बचपन मे इस तरह की कोल्ड वार का अपना ही मज़ा था । बहरहाल , गाँव की पुलिया को आज भी मे शिद्दत से याद करता हूँ । कोल्ड वार की ये कहानी आज भी मुझे आनंद से भर देती है । आजकल नई सड़क बनने की वजह से पुरानी पुलिया टूट गई है .....इस की जगह अब नई पुलिया बन गयी है । पुलिया पे कभी कभी हमारे बहुत सारे दोस्तों का फुरसतिया चिंतन होता था । होली के समय पुलिया पे बैठकर हम इसेकिस तरह मनाना है इसे बात की प्लानिंग करते थे तो होली के दिन रंग खेलने के बाद आई थकान को मिटने के लिए भी हम पुलिया को आरामगाह बना लेते थे । सड़क पे आती जाती गाड़ियों के बीच पुलिया पे फुरसत के ये पल आज भी बहुत याद आते हैं । नई पुलिया पर अभी तक बैठने का मौका नही मिला है ...उस पे बैठकर गप्पे मारने की हसरत है .....!!

मंगलवार, 18 मार्च 2008

प्रभात फेरी /उमरानाला की बात (१३)

श्री मन नारायण नारायण हरि हरि $$$ , गोविन्द बोलो हरि गोपाल बोलो $$$ ......... किसी समय उमरानाला की सुबह इस तरह के मधुर गीतों के साथ होती थी । सुबह सुबह सत्य साई सेवा समिति फेरी निकालती थी । क़रीब चार बजे सुबह बाज़ार चौक मन्दिर से प्रभात फेरी निकालती थी ....ढोलक मृदंग मंजीरे बांसुरी और हार्मोनियम के स्वर गाँव के माहौल को आध्यात्मिक कर देते थे । बाज़ार चौक ,बस स्टेंड ,रेलवे स्टेशन , एम् पी ई बी , नाका मोहल्ला बैल बाज़ार से होते हुई प्रभात फेरी लौटकर मन्दिर मे आ जाती थी ..फ़िर दैनिक आरती के बाद समिति के लोग भक्त गण अपने अपने काम काज से लग जाते थे ।उस समय सुबह का यह संगीतमय आगाज़ मुझे बहुत अच्छा लगता था । होली के समय समिति के लोग पूरे दिन रंग गुलाल खेलते हुए होली के गीत भजन गाते थे । इस तरह की जीवंत सुबह को मैं आज भी बहुत याद करता हूँ ।
उमरानाला मे प्रभात फेरी का सिलसिला एक लंबे वक्त तक चला ... लेकिन समिति के बहुत से सदस्य जब गाँव से चले गए तो ये सिलसिला भी थम गया .... । बाद मे इसे फ़िर से शुरू करने की कोशिश की गई लेकिन कुछ दिन बाद प्रभात फेरी का चलन बंद हो गया । मुझे मेरे मित्र बताते है आज कल गायत्री परिवार गायत्री के सदस्य गायत्री मन्दिर से रोज़ प्रभात फेरी निकालते है । मेरी प्रार्थना है की इस बार ये सिलसिला रुके नही ..!!

शुक्रवार, 7 मार्च 2008

खदनिया /उमरानाला की बात (१२)

बहुत पहले उमरानाला की एक अलग ही तरह की भौगोलिक पहचान हुआ करती थी , वो थी गांव मे जगह जगह खदनिया । खदनिया यानि एक बड़ा सा गड्ढा । गांव मे जगह जगह मौजूद इन खदनिया के अलग अलग नाम भी थे ,जैसे बस स्टैंड की खदनिया ... बाज़ार चौक की खदनिया जामरोड की खदनिया ,बड़े स्कूल की खदनिया रेलवे स्टेशन की खदनिया , बैल बाज़ार की खदनिया ......एम पी ई बी की खदनिया आदि । एक तरह से ये खदनिया हमारे गांव मे अलग अलग जगह के नाम बन गई थी ..ठीक वैसे ही जैसे किसी बड़े शहर मे स्थानों रास्तों को महापुरुषों या किसी और नाम से जाना -पहचाना जाता है । बारिश मे ये बड़े गड्ढे जब भर जाते थे तो ये खूबसूरत छोटे छोटे तालाबों का नज़ारा बनाते थे । इन गड्ढों के आस पास बेसरम (बेशरम) के पेड़ थे । इनके सफ़ेद गुलाबी नीले फूल , जो जाने अनजाने इसकी सुन्दरता मे चार चांद लगाते थे । इन के अन्दर मेढक की टर्र टर्र खदनिया के माहौल को संगीतमय बनाती थी । कुछ परिवार खदनिया मे बतक पालन भी करते थे । तैरती बतक देखना मुझे भाता था
बारिश के दिनों मे घर के लोग हमे इन गड्ढों के पास जाने नही देते थे क्योंकि इनके अन्दर पानी के सांप (पनियल सांप ) बिच्छु आदि होने का डर रहता था .कभी कभी घर वालों की बात को अनसुना कर हम इन छोटे तालाब मे काग़ज़ की नाव बहाते थे .ये खेल मुझे सबसे ज़्यादा पसंद था .लेकिन इसे खेलने का मौका हमे कम ही मिल पाता था। सर्दियों ओर गर्मी मे खदनिया खेल का अदद मैदान बन जाती थी .नदी -पहाड़ जैसे ग्रामीण खेल हम इनमे खूब खेला करते थे । हमने इन गड्ढों के अन्दर क्रिकेट भी खेला । सार्वजनिक आयोजनों के लिए भी इन बड़े गड्ढों का इस्तेमाल होता था । और गर्मी के दिनों मे गाँव मे आने वाली नाटक मंडली ....सर्कस टूरिंग टाकीज़ भी खदनिया मे अपना डेरा जमाती थी । कुछ लोगों के पते भी इनसे जाने जाते थे .जैसे श्री जाम रोड की खदनिया के सामने,उमरानाला पिन कोड ४८० १०७ (मध्य प्रदेश) व कभी कभी शादी आदि के समारोह मे विवाह स्थल के रूप मे भी खदनिया का उल्लेख होता था जैसे हमारा निवास रेलवे स्टेशन खदनिया के पास उमरानाला ४८० १०७ (मध्य प्रदेश)
जिन लोगो के घर खदनिया के पास थे वे खदनिया का इस्तेमाल कभी कभी दैनिक क्रिया के लिए भी कर लेते थे । खदनिया के आस पास लोगो की चौपाल भी खूब जमती थी । पूनम की रात मे खदनिया के अन्दर चांद का दीदार मुझे अच्छा लगता था । पानी के भीतर पत्थर फैंक कर उठने वाले भंवर देखना भी मुझे प्रिय था .हम इसे रोटी खाने का खेल कहते थे पत्थर फैकने पर जितने भंवर उठे उतनी रोटिया खाई । फिर दूसरा खिलाड़ी पत्थर फैंक कर पानी रोटी गिनता था .जिसके सबसे ज़्यादा भंवर वो ही इस खेल मे जीतता था । छीन्द के पेड़ का प्रतिबिम्ब खदनिया मे बेहद सुंदर लगता था ।
दरअसल, खदनिया की बड़ी तादाद हमारे गाँव को सुंदर बनाती थी । ये हर रूप मे मुझे प्रिय थी .... पानी से भरी हुई, कीचड से सनी हुई या फिर बारिश का इंतजार करती सूखी खदनिया .बाद मे धीरे धीरे नए मकान बनने के कारण ये खदनिया लुप्त होती गई ....इनके रूप मे पते भी लापता होते गए .......रोटी गिनने , इनमे नदी- पहाड़ का खेल भी खत्म हो गया !!

बुधवार, 5 मार्च 2008

रेड्डी आंटी /उमरानाला की बात (११)

श्रीमती धन लक्ष्मी रेड्डी ....रेड्डी आंटी का यही नाम है। बाज़ार चौक उमरानाला मे काफी साल पहले उनका परिवार रहता था । सर्दियों मे बाज़ार चौक मे अमूमन हर रोज़ मेरी मम्मी समेत मोहल्ले की महिलाओं की बैठक दोपहर के वक़त उनके घर के बाहर हुआ करती थी .दोपहर के वक़त स्वेटर बुनते हुए उनके बीच काफी सारी बाते होती थी । उस समय मे काफी छोटा था ,स्कूल भी नही जाता था ...और मम्मी की पूँछ बनके मैं उनके साथ जाने अनजाने इन बैठकों का हिस्सा बन जाता था .रेड्डी आंटी का बेटा मेरा हमउम्र था ..नाम था चंदू । चंदू का असली नाम मुझे याद नही है .चंदू और मैं साथ मे खेला करते थे । रेड्डी आंटी के बारे मे बचपन मे मैंने बहुत सी बातें सुनी ....वो बताती थी की पहले उनका परिवार काफी गरीब था ...दीपावली के दिन उनका जनम हुआ था उस वक़त उनके पिता दीवाली की रात मे जुआ खेल रहे थे , उन्होंने उस रात जुए मे काफी धन जीता ...चूँकि आंटी का जनम दीपावली की रात हुआ इसलिए उनके पिता ने उनका नाम रखा धन लक्ष्मी । उनके नाम से उन्होंने जुए के पैसो से साडियों का कारोबार शुरू किया । उनका जनम पिता के लिए काफी शुभ रहा बकौल आंटी उनके पिता ने बाद मे ख़ुद की मिल भी शुरू की । रेड्डी आंटी हिन्दी अच्छी तरह बोल नही पाती थी । उनके घर मे ऐसी ढेर सारी चीजे थी जो मेरे आकर्षण का केन्द्र थी जैसे उनके घर का झूमर ,चंदू के खिलोने , टू इन वन टेप , सत्य साई बाबा के चित्र ,दीवार पर एक लड़की की पेंटिंग आदि । आंटी का परिवार सत्य साई बाबा का भक्त था उनके पास साई भजन के बहुत सारे टेप थे ..साथ ही तेलगु मे बाबा के प्रवचन भी । तेलगु नही जानने के बावजूद मे इन टेप को सुनना पसंद करता था , क्योंकि टू इन वन टेप मेरे लिए एक मज़ेदार चीज़ थी । महिलाओं की बातों मे कोई दखल न हो इसलिए आंटी चंदू और मुझे टेप चालू करके घर मे ही छोड़ देती थी। रेड्डी आंटी ने हमारे जायके मे साउथ की बहुत सी चीजे जैसे इडली ,डोसा ,साभंर ,रसम पायसम जोड़ी .इसलिए आज भी जब मैं इनको खाता हूँ तो रेड्डी आंटी याद आ जाती है । रेड्डी आंटी के हाथो मे जादू था उनके हाथ के बने डोसा मुझे बेहद प्रिय थे । रेड्डी आंटी को उमरानाला छोड बीस साल भी ज़्यादा हो गए । उनसे इस बीच कभी कोई बात नही हुई , जैसा कि वो कहती थी चंदू बड़ा होके डॉक्टर बनेगा .शायद चंदू डॉक्टर बन गया हो । रेड्डी आंटी ने बचपन मे मुझे एक बस का खिलौना दिया था ...वो बड़ी सुंदर सी बस थी .मेरा मन करता है उस बस मे बैठकर कभी रेड्डी आंटी से मिलके आऊं । चंदू अब शायद मुझे पहचानेगा भी नही ...लेकिन उससे भी मिलने कि इच्छा तो है !!