गुरुवार, 31 जनवरी 2008

हिवरा से सवेरा होता है /उमरानाला की बात (०७)


मेरे घर की खिड़की से हिवरा गाँव की पहाडी दिखती है . मैं सुबह सुबह इन पहाडियों से रोज़ सूरज को निकलते देखता था . बचपन मे मुझे लगता था कि हो न हो ये हिवारा गाँव ही जहाँ से सूरज निकलता है ,और शाम होते ही मेरे घर के पीछे वो डूब जाता है . पापा सुबह के सूरज को देखने कि बात बचपन से हमे कहते रहे है . साथ ही पापा हमे ये सीख भी देते कि सूर्योदय के बाद देर तक सोने से स्वास्थ्य ,धन और विद्या तीनो का नुकसान होता है .वो हमेशा कहते हैं कि जो देर तक सोते है ....वो प्रकृति के सौन्दर्य बोध से वंचित रहते है . सुबह का सूर्य बाल रुप मे बड़ा सुन्दर मनोरम लगता है . सनसेट पॉइंट अक्सर जिक्र मे आता है , लेकिन घर कि खिड़की से सवेरे सवेरे सूर्योदय का दीदार घर कि खिड़की को एक अदद सन राइज़ पॉइंट बनाता है . हिवरा की पहाडी ,उसके पहले खेत खलियानो से निकलते सूरज कि दस्तक .... मुझे बेहद भाती थी . कई बार छत पर चढ़कर हम इस खूबसूरत दृश्य का नज़ारा करते थे .
हिवारा बहुत दिनों तक मुझे सूरज का घर लगता था . उमरा नदी के पास जाकर इन पहाडियों से निकलते सूर्य का भी दीदार किया . ये भी बहुत सुन्दर नज़ारा होता है . वैसे रेलवे पुल से निकलता हुआ सूरज भी बहुत अच्छा लगता है जिसका नज़ारा उमरा नदी के सड़क पर बने पुल से सीधे किया जा सकता है . अपने गाँव मे सुबह कि सैर करते हुए मैंने हर जगह से इस बेहतरीन नज़ारे को देखा . यकीनन मुझे आज भी अपने गाँव कि सुबह सबसे उम्दा और अच्छी लगती है . बाद मे तो ये पता चल ही गया कि सूरज का घर कहीं और है .लेकिन इससे फर्क भी क्या पड़ता है हिवरा को सूरज का घर कहने से सूरज बुरा नही मानता है !!

महाराज के बडे /उमरानाला की बात (०६)



मथुरा के पेढे आगरा के पेठे ...हर जगह के खान पान कि अपनी ही खासियत होती है .ऐसे ही उमरानाला मे महाराज के बडे बडे मशहूर है. लगभग साठ सालो से न केवल उमरानाला बल्कि आस पास के इलाको मे भी महाराज के बडो कि शोहरत फैली हुई है . बात उन दिनों कि जब उमरानाला मे बस स्टैंड बना ,महाराज यानी तिवारी जी ने बडे कि एक छोटी सी दुकान खोली . उसी साल उन्होने ने रेलवे स्टेशन मे भी दुकान शुरू की . धनिया, मिर्च, अदरक, प्याज़ और पांच तरह कि दालों से बने इन बडो का जादू ऐसा चला कि आज तक इसका स्वाद लोगो को अपनी ओर खींचता है . उमरानाला आने वाले लोग इन बडो को खाए बिना रह नही पाते . ऐसा भी कहा जाता है कि छिन्दवाडा आने वाले कलेक्टर एस पी और अन्य अधिकारियो को भी इसका जायका भाता है . पूर्व मे एक कलेक्टर हर दिन शाम का नास्ता यंही से मंगवाते थे .
पहले एक रुपये मे आठ बडे मिल जाते थे .लेकिन आज कल एक रुपये के दो बडे मिलते है .इन बडो के साथ महि कि खटाई और मिर्च हरे धनिये टमाटर से बनी चटनी दी जाती है .पहले कोयले की अंगीठी पर महाराज बडे बनाते थे , आज कल तंदूर मे कढाई मे बडो को तला जाता है .शनिवार बाज़ार मे ये बडे खासे लोकप्रिय है . साथ ही कई घरो मे ये शाम के स्नेक्स के तौर पर पसंद किये जाते है . पूरे साल मे केवल होली के दिन ये दुकान बंद रहती है . बारिश मे गिरते पानी के बीच गरमा गरम बडे खाने का मज़ा ही कुछ और है . चीनी मिटटी की प्लेट मे बडे परोसे जाते है . प्लेट मे महि और चटनी को पीने का मज़ा आता है . क़रीब दस साल पहले महाराज ने छिन्दवाडा ,सौंसर , परासिया आदि मे दुकान खोली थी लेकिन बाद मे उन्होने ये दुकाने बंद कर दी .
इस व्वसाय मे उनका पूरा परिवार घर कि महिलाये भी सहयोग करती है . सुबह चार बजे से दाल को मसाले को तैयार करना शुरू कर दिया जाता है . शाम चार बजे से देर रात तक ये दुकान खुली रहती है ,रेलवे स्टेशन मे ट्रेन आने पर हाथ ठेले पर ये दुकान लगती है . सुबह चार बजे नागपुर ट्रेन आने के साथ ही इन बडो का जायका पूरे माहौल मे फैलने लगता है .
आज कल बस स्टैंड मे सुबह से ये दुकान खुल जाती है . स्टैंड पर आने जाने वाली हर गाड़ी के साथ इन बडो का स्वाद और शोहरत दूर दूर तक पहुँचने लगती है . नागपुर से भी कुछ लोग कभी कभार केवल इन बडो को चखने के लिए आ जाते है .आख़िर इनका स्वाद भी तो है लाज़वाब !!

कहाँ है वो बुढ़िया ? /उमरानाला की बात (०५)


बचपन मे हमारी बालभारती कि किताब मे एक कविता थी " चल रे मटके " .दरअसल ये कविता एक ऐसी बुढ़िया के बारे मे थी जो कि बहुत सारा धन लेकर रास्ते मे चोरों और जानवरों को चकमा देकर अपनी ससुराल तक सुरक्षित जाती है . क्लास मे ये कविता हम ज़ोर ज़ोर से लय मे गाते थे । कविता कुछ इस तरह है :
हुए बहुत दिन बुढ़िया एक
चलती थी लाठी को टेक
उसके पास बहुत था माल
जाना था उसको ससुराल
मगर राह मे चीते शेर
लेते थे राही को घेर
ऐसी मुश्किल मे ये बुढ़िया अपने दिमाग का इस्तेमाल कर एक उपाय करती है . वो बाज़ार से एक बड़ा सा मटका लेकर उसके अन्दर बैठकर" चल रे मटके म्म्क टू ....." गाते हुए अपनी ससुराल तक जाती है . " चल रे मटके म्म्क टू ....." किताब मे बुढ़िया का एक सुन्दर सा चित्र था ,उसका मटका भी बड़ा सुन्दर था . बीच मे चोर और चीते शेर के भी चित्र थे . मैंने गाँव कि बुजुर्ग महिलाओ मे इस बुढ़िया को ढूंढने कि कोशिश की . बाज़ार मे मटके देखे कई देर तक मे मटकों को गौर से देखता .कुम्हार से पूछता क्या तुम्हारी दुकान से कोई बुढ़िया मटका लेकर अपनी ससुराल जाती है . वो बस हँसकर अपने काम पर लग जाता .मैंने उतना विशालकाय मटका अभी तक नही देखा ,उसका चित्र आज भी मेरी नज़रों के सामने है . सम्प्रति , मध्य प्रदेश मे प्राथमिक शिक्षा का कोर्स बदल गया है . बुढ़िया कि कविता कई सालो से अब इसमे नही है . बालभारती की वो किताब भी नही है . बुढ़िया के साहस की कहानी नही है . ये कविता अब तक मुझे याद है यही इसका जादू है . ढेर सारे गहने पहने वो बुढ़िया शायद अब अपनी ससुराल मे रहती हो ?

बुधवार, 30 जनवरी 2008

भोलेनाथ बचा लेना /उमरानाला की बात (०४)




उमरानाला की उमरा नदी का जिक्र आते ही इसके नीले नीले पानी की ठंडक मेरे मन को झंकृत करने लगती है . जहन मे सबसे पहले जो बात आती है वो इस नदी मे घर वालो को बिना बताये नहाने की शरारत . दरअसल इस नदी मे बचपन मे नहाने वाला हर शख्स मेरा दावा है की चोरीछिपे ही
नहाता है . इस नदी की खूबसूरती की जितनी भी तारीफ़ की जाये कम है . उमरानाला /इकल बिहरी /हिवरा मे ये नदी बहती है . और हर जगह इस नदी की अपनी खासियत व सुन्दरता है .उमरानाला मे इस पर सड़क और रेलवे का पुल है . तो हिवरा मे ये कुदरत के बेहद नजदीक है वहीं इकल बिहरी मे मंदिर और इसके तट पर बने घाट इसके वातावरण को पवित्र और धार्मिक बनाते है . उमरानाला नदी मे इसके पुल पर शंकरजी का एक छोटा लेकिन सुन्दर मंदिर है . सुबह शाम दोपहर और रात हर वक़त मे मैंने इस नदी की सुन्दरता को महसूस किया है. इस नदी के पानी का शोर मे अब भी सुन सकता हूँ . पत्थरों के बीच कल कल बहते जल का शोर एक अदभुत अनुभव देता है . हालांकि गर्मी आने से पहले पहले ही इस नदी का पानी सूख जाता है ,यानी केवल सात से आठ महीने ही इस नदी मे पानी रहता है. इस नदी का हर मौसम मे नज़ारा अपनी ही तरह की खासियत लिए होता है . बारिश मे इस नदी मे पूर (बाढ़) बहुत ज़ल्दी आके उतर जाती है . उमरानाला के समीप तन्सरा के सूफी संत दीवाने शाह बाबा को भी इस नदी से बेहद लगाव था . वे इस नदी मे बडे शौक से मछली पकड़ते थे . ये ही उनका शौक था . इसलिए भी इस नदी ने मुझे आत्मिक तृप्ति देने का काम किया .बात उन दिनो की जब मुझे और मेरे दोस्त आलोक को इस नदी मे नहाने का चस्का लगा. उन दिनो हम मिडिल स्कूल मे पढ़ते थे . मिडिल स्कूल मे दोपहर के वक़त छुट्टी हो जाती थी . घर आके हम सीधे नदी की ओर कूच कर जाते थे . हर रोज़ हम इस नदी मे चोरी छिपे नहाते थे घर वालो को पता न चले इसलिए नदी मे नहाने के बाद हम शंकर जी के मंदिर मे प्रार्थना करते की भगवन घर पर डाट न पड़े , हमको बचा लेना ...नदी मे अब नही नहायेंगे ...इस बार लाज रख लेना सोमवार को नारियल का प्रसाद चढायेगे बचा लेना ॥ सोमवार आता हम दोनों मंदिर जाते . लेकिन मंदिर के पास बहता नदी का पानी हमको फिर बुला लेता . और हम भगवान भोलेनाथ से कहते की हम प्रसाद लेकर आये है . पहले ज़रा नहा ले फिर प्रसाद अर्पित करेंगे . फिर नदी मे डुबकी मस्ती मौज ..... सोमवार का नारियल एक तरह से हमको इस बात की गारंटी लगता की भोले बाबा हमारे साथ है और हम बेफिक्र होके उमरा नदी मे नहा सकते है. गिरती बारिश मे , सर्दी मे हमने यहाँ खूब मज़ा किया . बचपन का ये वक्त मुझे सबसे उम्दा लगता है . इसके अलावा हमने हिवरा मे भी उमरा नदी मे नहाने का आनंद उठाया . कभी कभी हम इसमे वालीबाल जैसे खेल भी खेलते तो कभी कभी हमने पुराने टायर ट्यूब के साथ तैराकी सीखने का जतन भी किया . इस नदी मे दुर्गा उत्सव गणेश उत्सव मे प्रतिमा विसर्जन का भी अदभुत नज़ारा होता है. गर्मियों मे मैं और आलोक घंटो इस नदी के पास बैठकर बाते करते थे . गर्मियों मे हालांकि ये नदी सूख जाती है लेकिन सूखी होने के बावजूद इस नदी की सुन्दरता मे कोई फर्क नही पड़ता है . ये उन दिनो भी गाती बहती और बात करती लगती है !!सोमवार को भोलेबाबा को मनाने का सिलसिला लम्बा चला . और भोलेबाबा हमे बचाते रहे !!

शनिवार, 26 जनवरी 2008

भुमकाल डोह का भूत /उमरानाला की बात (०३)



उमरा नदी में एक बहुत ही मनोरम जगह है भुमकाल डोह . इस जगह के बारे में मैंने बचपन में तरह की तरह की विचित्र बाते सुनी है . भुमकाल डोह में एक भूत है ... जिसकी रूचि लोगो का जीवन लेने में है . दोपहर के वक़्त इस जगह जो जाता है वो वापस लौट के नहीं आता है. भुमकाल डोह के पास जाना खतरे से खाली नहीं आदि आदि . इन तमाम तरह की बातों ने मेरे बल मन पर बड़ा गहरा असर किया . बचपन में मैं इस स्थान तक जाने की कभी हिम्मत नहीं जुटा पाया . भुमकाल डोह ( डोह यानी नदी के अन्दर एक गड्ढा) तैराकी के शौकीनों के लिए एक चुनौती भी था . इस डोह की गहराई के बारे में भी बहुत से किस्से है कुछ लोगो का कहना है भुमकाल डोह के अंदर अथाह पानी है ,जिसकी गहराई का अंदाज़ अभी तक कोई लगा नहीं पाया है . दस से बारह खटिया रस्सी इस डोह के अन्दर डाल कर लोग निरीक्षण कर चुके है , लेकिन इसकी गहराई अबूझ पहेली ही रही . हमारे गाँव के कुछ युवक इस डोह में लगातार तैराकी कर अपने शौर्य का प्रदर्शन भी करते रहे हैं .बहरहाल बात उन दिनों की है जब आठवी क्लास में पढता था ,एक रोज़ गर्मियों की छुट्टी में मैं अपने एक मित्र के साथ भुमकाल डोह गया .इसके बारे में जो भी मिथक मैंने सुने थे उसके चलते ही यहाँ जाते हुए मैं डर भी रहा था . लेकिन हम हिम्मत कर डोह तक पहुँच ही गए ... भुमकाल डोह को पहली बार देखते हुए मुझे लगा कि लोग नाहक इस इस सुन्दर और मनोरम स्थान को बदनाम करते है .भुमकाल डोह का सौन्दर्य अपने में अप्रतिम है ,इसके आस पास जंगल और खेतो के कारण इस जगह का सौन्दर्य देखते ही बनता है .घने जंगल के बीचों बीच होने की वजह से इस स्थान को आप जंगल में मंगल भी कह सकते है. मैंने सुन रखा था की इस जगह पर कभी कभी शेर भी आ जाता है . दूर होने की वजह से भी हो सकता है की इस जगह के बारे में ऐसे मिथक चलन में आ गए हो . लेकिन भुमकाल डोह का ये नाम कैसे पड़ा होगा ये जानने की मेरी रूचि जागी . गाँव के एक बुजुर्ग के मुताबिक भुमकाल डोह का ये नाम भुमका शब्द से बना ... देहात में भुमका के माने होते है तांत्रिक . इस जगह के बारे में एक प्रचलित धारणा ये भी है की किसी समय यहाँ पर एक तांत्रिक था , जो तंत्र सिद्धि के लिए यहाँ पर साधना करता था . उसके प्रभावों के कारण ही ये जगह भूतिया हो गयी . वैसे मैंने आज तक कभी भी इस जगह पर किसी तरह की दुर्घटना होने की बात नहीं सुनी . हालांकि यंहा पर कभी कभी जानवरों के पानी में डूबने की घटनाएं होती रही है. भुमकाल डोह के बारे में एक बात ये भी है की भूमि /नदी के अन्दर गड्ढा होने के कारण यंहा पानी के अन्दर भंवर पड़ते है इसलिए कुशल तैराक ही यहाँ पर तैराकी कर सकता है. आम के पेड़ों के ऊपर चढ़कर नदी में लम्बी छलांग लगाने का आनंद ही कुछ और है .यंहा तैराकी करने लोग समूह बनाकर ही आते है . कभी कभी ये किस्सा भी शाम को सुनने में आता था कि फलां लड़का डोह में डूबते डूबते बचा . मेरे बालमन पर इस डोह का खासा असर रहा ..रहस्य और रोमांच कि मुझे ये अदभुत दास्ताँ लगता था . आम के पेडो पर कभी कभी उल्लू भी दिख जाते थे ..जो निःसंदेह इस जगह को भुतिया होने का तमगा दिलवाने में मददगार थे.
भुमकाल डोह की दोपहर वाकई में भयभीत कर देती है खास तौर पर गर्मियों में ... दोपहर के वक़्त इस सुनसान जगह पर वक़त बिताना मुश्किल भरा लगता है. मुझे कुछ लोगो ने बताया की देवगढ़ वंश के राजा कोकशाह पूर्णिमा की रात में सफ़ेद घोडे पर यंहा सैर के लिए आते है. लेकिन इस जगह के सौन्दर्य को देखकर मैं ये बात अच्छी तरह समझ चुका था की ये सब मनगढ़ंत बाते है .इसके अलावा कुछ भी नहीं . अब इस डोह को लेकर हमारे गाँव में इस तरह की विचित्र बाते नहीं होती ..... आज कल यंहा पर लोग यंहा तक की बच्चे भी बेखौफ होके आते है.... भुमकाल डोह का भूत कहाँ गया ? मैं तलाश की कोशिश नहीं करता .लेकिन ये बात भी सच है यंहा से आने के बाद मेरे दोस्त की तबीयत लबे समय के लिए बिगड़ गयी थी . मेरा ये दोस्त आज कल भोपाल में है . उसके घर वाले आज भी मानते है ... कि उसे भुमकाल डोह का भूत झूम गया था .... भूत ने उसका पीछा लम्बे समय के बाद ही छोडा . आज वक़त बदल गया है भुमकाल डोह भुतिया जगह नहीं बल्कि एक अदद सैरगाह बन गया है . जो कि एक अच्छी बात है !!

शुक्रवार, 25 जनवरी 2008

मुंशी प्रेमचंद बाग़ / उमरानाला की बात (०२)


"पहले बैल बाज़ार (पशु बाज़ार) उमरानाला में क्रिकेट का मैदान हुआ करता था . लेकिन धीरे धीरे यंहा ज़मीन बिकती गयी और मैदान की जगह मकानों ने ले ली . लेकिन सरकारी ज़मीन का एक छोटा सा टुकडा बच गया . जिस पर न तो खेल खेला जा सकता था न ही उसका किसी और काम इस्तेमाल किया जा सकता था .

मैदान के इस हिस्से पर अक्सर ज़मील चाचू की मित्र मंडली शाम को घुमाने और बैठने के लिए आया करती थी . चाचू का परिचय भी कर दूं ,वैसे तो ज़मील चाचू फुल टाइम टेलर रहे हैं ,लेकिन साहित्य के प्रति उनकी गहरी समझ और रूचि रही हैं . हर तरह के किताबे पढना चाचू का शौक रहा है . हिंदी उर्दू के अलावा ज़मील चाचू ने रूसी साहित्य को भी खूब पढ़ा. इस बेकार सी ज़मीन पर उनकी नज़र में जो बेहतर इस्तेमाल नज़र आया वो था इस जगह पर एक बाग़ बनाना .क़रीब दस साल पहले उन्होने गर्मियों से इस खाली जगह में पौधे लगाने का काम शुरू किया .... धीरे धीरे उनकी मित्र मंडली ने उनका इस काम में सहयोग करना शुरू कर दिया ।


क़रीब तीन साल बीतने के बाद ये बेकार सी पड़ी ज़मीन एक बागीचा नज़र आने लगी . चाचू ने अपने फेवरेट साहित्यकार प्रेम चन्द के नाम से इस बगीचे को नाम दिया "मुंशी प्रेमचंद बाग़ " . फूल खिलने लगे लोग यहाँ आने लगे गाँव के कुछ युवकों ने भी फिर साथ दिया . मुंशी प्रेमचंद की जयंती और पुण्यतिथि पर यहाँ बकायदा साहित्य की गोष्ठी होने लगी . इस बगीचे के पेड़ गर्मियों में छांव देने लगे ..... बगीचे का सौन्दर्य बढ़ने लगा .


मुंशी प्रेमचंद गाँव से प्यार करते थे , शायद यही वजह रही की प्यार से सिंचिंत और भावनावो से निर्मित इस उपवन की शोभा देखते ही बनती है .मन यहाँ सुकून पाता हैं , भावनाये प्रगाढ़ता और विचार शक्ति पाते हैं . इस बगीचे पर मैंने दैनिक भास्कर के लिए एक स्टोरी की थी . इस बगीचे को देख कर मुझे अक्सर ये एहसास होता है कि जिन्दगी मैं फूल कभी भी कहीं भी खिल सकते हैं बस थोड़े से प्रयास कि ज़रूरत है . मुंशी प्रेमचंद बाग़ एक वाटिका नहीं बल्कि जिन्दगी को संवारने का फलसफा है . जिन्दगी में खुशबू बिखेरने की कोशिश है .चाचू के इस गुलदस्ते की जितनी भी तारीफ की जाये कम है .

एक बंजर बेजान जगह पर गुल खिले .. यकीनन ये मानव प्रयासों की जीत है . इस बगीचे में आज कल हर्बल पौधे लगाये जा रहे है ,मुझे यकीन है आने वाले दिनों में "मुंशी प्रेमचंद बाग़ " लोगो को तकलीफो में आराम देगा . प्रेमचंद के साहित्य की तरह जो जीवन की निराशा में आशा का संदेशा देता है . उन फूलों की तरह जो काँटों में खिल कर मुस्काते है .खुशबू फैलाते है ।यूँ तो दिल्ली में सूखी घांस के मैदान भी पार्क और बगीचे होने का दंभ भरते है ,लेकिन मेरा मन शरीर और आत्मा "मुंशी प्रेमचंद बाग़ " की नर्म दूब पर लेटकर ही चैन पाता है . मुंशी प्रेमचंद बाग़ एक प्रवाह है जिसका असर मेरी रूह तक है .




गुरुवार, 24 जनवरी 2008

"उमरानाला की बात " (०१)



मेरे गाँव की लाल मिटटी मुझे आज भी याद आती है । ऐसा होना स्वभाविक सा है क्योंकि इस गाँव में मेरा बचपन बीता है । ज़िन्दगी के सुनहरे पल भी , दिल्ली में रहते हुए एक अरसा हो गया है , लेकिन उमरानाला की बात कुछ और ही है . मेरे बड़े पापा अक्सर कहा करते थे की हमारा उमरानाला आर .के . नारायण के " मालगुडी" जैसा है. मैंने दिल्ली में रहते हुए अपने गाँव की उन समानताओं को खोजने की कोशिश की जो मालगुडी जैसी है . हमारे गाँव नेरो गेज रेलवे ट्रेक है , छोटी सी ट्रेन और इसमें सवार होकर आसपास की सैर , दिल्ली मेट्रो में भी वो मज़ा नही जो इस छोटी सी ट्रेन में है , हालांकि अब ज़ल्द ही यहाँ पर बड़ा ट्रेक और बड़ी ट्रेन आने वाली है . मुझे आसपास के इलाको के सफर अब भी याद हैं , जो मैंने इस ट्रेन में सवार हो कर किये .शनिवार के दिन लगाने वाले साप्ताहिक बाज़ार की बात भी निराली है , हर हफ्ते एक बार पूरा माहौल मेले जैसा ..... शनिवार के बाज़ार में सब्जी भाजी से लेकर तमाम तरह के सामान . वाह ! क्या बात है इस बाज़ार की , ग्रामीण संस्कृति की उम्दा तस्वीर !!

हमारे गाँव से लगभग दो किलोमीटर की दूरी पर तन्सरा गाँव में सूफी संत बाबा दीवानेशाह की पवित्र दरगाह हैजहाँ देश विदेश से लोग जियारत के लिए आते है . मेरे पूरे परिवार की इस पवित्र स्थल के प्रति गहरी आस्था है . गाँव में एक नदी भी है ... जिला मुख्यालय यानी छिन्दवाडा से उमरानाला २२ किमी. दूर है . गाँव के दक्षिण छोर पर नदी के पास शिवजी का मंदिर और उत्तर दिशा में हनुमान जी का मंदिर है . इसके चारो और हिवारा वासुदेव , तन्सरा , इकल बिहरी , जाम मोहखेड़ और आंजनी गाँव हैं

उमरानाला की लालमाटी कभी कभी मुझे मंगल ग्रह की तरह लगती हैं बचपन में अक्सर ये लाल माटी और इसके लाल हरे कंकड़ पत्थर मेरी वैज्ञानिक कल्पना के आधार बने मुझे लगता था कि इस गाँव का संबंध हो न हो मंगल ग्रह से रहा होगा . मैंने कई बार ये प्रयास रात में आसमान की ओर निहार कर किया ताकि किसी न किसी तरह अपने गाँव और मंगल ग्रह के बीच पुराने संबंधो की कोई कड़ी जोड़ लूं ताकि मेरे गाँव को विश्व मंच पर एक अलग स्थान मिल जाय . दिन में कई बार मैंने नदी के पत्थर जमा किये , मेरी इन कोशिशो में ऐसे पत्थर जमा करने का लक्ष्य होता था कि उमरानाला में मंगल वासियों के आने के सबूत मैं जुटा संकू . बहरहाल मंगल और मेरे गाँव के बीच कोई गहरा ताल्लुक हैं ,दोस्तों के बीच अक्सर ये चर्चा होती थी .क्योंकि यंहा की लाल माटी में एक अजीब से कशिश रही है . जो धरती की हर तरह की मिटटी से जुदा नज़र आती हैं . कभी यूँ भी लगता था कि मैं यू .ऍफ़ .ओ . के अनसुलझे रहस्य को सुलझाकर इस संबंध को मान्यता दिलवा दूं ।


इस गाँव के नामकरण की भी बड़ी दिलचस्प कहानी है , हुआ यूँ की जब इस गाँव में अंग्रेज रेलवे ट्रेक का काम करवा रहे थे , तब गाँव की उमरा नदी पर पुल बनवाते समय एक अंग्रेज रेलवे अधिकारी गाँव के लोगो से पूछा तुम्हारे गाँव में जब रेल आएगी तो गाँव के स्टेशन का नाम क्या होगा ... गाँव वालो ने कहा बाबू हम सभी तो इकल बिहरी गाँव के रहने वाले हैं . इस गाँव का तो कोई नाम भी नहीं हैं . अंग्रेज अधिकारी की नज़र अचानक एक पेड़ पर पड़ी उन्होने कहा ये किस चीज का पेड हैं . गाँव वालो ने बताया की साहब ये उमर का पेड़ हैं . उमर के पेड़ के नीचे नाला . उस अग्रेज अधिकारी ने अपनी रचनात्मकता का उपयोग कर उमर के पेड़ और नाले को मिलाजुलाकर हमारे गाँव को नाम दिया "उमरानाला ". किसी समय हमारे गाँव में उमर के पेड़ बड़ी तादात में थे । लेकिन मज़े की बात आज उमरानाला में उमर का एक भी पेड़ नही । ये मेरा और मेरे दोस्तो दोस्तों का सौभाग्य है की हमें उमर के पेड़ न केवल देखने को मिले बल्कि हमने उमर के फलो को भी चखा !! उमर के पेड़ के नीचे खेल खेले उसकी छाँव को महसूस किया . ये वाकई अदभुत था . उमर का पेड़ आज भी मेरे सपने में आता है . क़रीब चार साल पहले मैंने आसपास के क्षेत्रोमें उमर को ढूँढने की बहुत कोशिश की , लेकिन ये कोशिश बेकार ही रही . गाँव में आज उमर का एक भी पेड़ नही हैं

मुझे अफ़सोस है गाँव में आज उमर नहीं हैं . उमर का दरख्त अब नही लेकिन उसकी हवाओ का असर आज भी यंहा की फिजाओं में खुशबू बिखेरता हैं. मैं लिखते हुए उसकी खुशबू को महसूस कर सकता हूँ . लाल मिटटी में आज भी मन करता है कि मैं लोट जाऊँ .उमरानाला की इस माटी के बहुत एहसान हैं . इसका ऋण किसी भी तरह नहीं चुकाया जा सकता . उमरानाला पोस्ट यादों के गलियारों में जाने का एक सबब यह भी हैं. शायद खुद से मुखातिब होने की कोशिश हैं . आखिर कौन हैं जो अपनी जड़ो से प्यार नही करता ?

(******)