

गाँव की रौनक भी इनसे बढ़ जाती थी ..क्योंकि आस पड़ोस के गाँव से भी सिनेमा देखने के लिए लोगो का ताँता लगा रहता था .टूरिंग टाकीज़ के इर्द गिर्द दुकाने भी लग जाती थी .अक्सर गाँव में ये टाकीज़ बाज़ार चौक में ही लगती थी । बाज़ार चौक हमारें घर के पीछे ही है ..इसलिए शाम के वक्त हम सभी टाकीज़ के आस पास खूब खेल खेलते थे । और शाम के शो का वक्त होते ही हम घर से पैसा लेकर फ़िल्म देखने चले जाते थे । टूरिंग टाकीज़ में बीच में परदा लगाया जाता था इस एक तरफ़ पुरूष और दूरी तरफ़ महिलाएं बैठकर फिल्मों का आनंद लेती थी । अमूमन तीन तरह की टिकट होती थी ..कुर्सियों पर बैठकर फ़िल्म देखने का पांच रुपया लगता था ..जबकि दरी पर तीन रूपये की टिकिट थी जबकि ज़मीन पर मात्र दो रूपये लगते थे ।
ज़मीन पर बैठकर फ़िल्म देखने वाले लोग अपने घरों से बोरे चादर लेकर आते थे । फ़िल्म शुरू होने से पहले शाम के वक़त भोपूं पे टाकीज़ वाले गाने बजाने लगते थे ....साथ ही दिनभर गाँव गाँव घूम कर ये लोग फ़िल्म का प्रचार भी करते थे । इनके प्रचार का तरीका भी बड़ा ही अनोखा होता था ..अगर कोई धार्मिक फ़िल्म लगी है तो ये लोगो से कहते की "बाज़ार चौक में आज मिलेंगे आपसे आकर ख़ुद घनश्याम ,मधुसूदन टाकीज़ में देखिये महान फ़िल्म कण कण में भगवान् " मसाला फिल्मों के लिए भी ये अपने अंदाज़ में प्रचार करते थे । मारधाड़ से भरपूर ..हम लोग अक्सर इनकी नक़ल भी उतारते थे .कई बार इनके पीछे पीछे हम भी दूर दूर तक चले जाते थे . टूरिंग टाकीज़ वाले शनिवार के बाज़ार के दिन चार शो दिखाते थे ..क्योंकि इस दिन हमारे गाँव में बाज़ार भी भरता था ।
जबकि रविवार के दिन परिवार वालों के लिए पारिवारिक सामाजिक फिल्में विशेष तौर पर लगाई जाती थी । हम लोग यहाँ फिल्मों को देखने के बाद उनके सवांद फिल्मी गानों मार धाड़ के दृश्यों की नक़ल उतारते थे .मैं अक्सर अपने बड़े भाइयों के साथ सिनेमा देखने जाया करता था । टूरिंग टाकीज़ में लगी फिल्मों का असर गाँव की गली गली कुचे कुचे में दिखाई देता था .भक्तिमय फिल्म लगने के बाद पूरा गाँव धर्म के रंग में रंग जाता था ..गाँव की महिलाओं की आवा जाही मंदिरों में बढ़ जाती थी .वहीं रोमांटिक फिल्मों का असर उस दौर के नौजवानों पर बखूबी पड़ता था । प्रेम प्रसंगों की गाँव में बाढ़ सी आ जाती थी ।
लेकिन हम बच्चों पर तो एक्शन फिल्मों का ही ज़्यादा असर होता था । फिल्मों पर चर्चा चौपालों में भी होती थी । लोगों की सामाजिक समरसता भी इस दौरान बढ़ जाती थी ..कई बार हमारें घर में फ़िल्म शुरू होने से पहले दूर दराज की चाचियों आंटियों की महफ़िल जम जाती थी । फ़िल्म शुरू होने से पहले कई बार हमे टिकिट लेने के लिए भेज दिया जाता था ..इसके बदले हमारा भी फ़िल्म देखने का इंतजाम हो जाता था । कई बार हम टूरिंग टाकीज़ के गेट कीपर से लेकर प्रोजेक्टर के ओपरेटर से भी दोस्ती जमा लेते थे ....इससे हमे फिल्मों की टूटी रील सिनेमा के पोस्टर स्टीकर आदि मिल जाते थे । गाँव में आने वाली टूरिंग टाकीज़ में नीलकंठ टूरिंग टाकीज़ और मधुसूदन टाकीज़ मुख्य थी ।
(जारी है .....)