बुधवार, 27 फ़रवरी 2008

मदरसा /उमरानाला की बात (१०)

गुरु और शिष्य मे माँ और बेटे का रिश्ता होता है . बचपन मे उर्दू की तालीम के लिए मैंने अपने गाँव की नूरानी मस्जिद के मदरसे मे दाखिला लिया. वहाँ हाफिज़ साहब हमको उर्दू और अरबी की तालीम देते थे . गाँव मे कुछ उन्मादी लोगो को ये बात अच्छी नही लगती थी की कोई हिन्दू (खास तौर पर ब्राह्मण ) बच्चा मस्जिद मे जाकर उर्दू की तालीम ले . लेकिन मुझे अपने परिवार की ओर से इस बात के लिए पूरा समर्थन था .सो मेरे दिमाग ये बात कभी आई ही नही .हालांकि कुछ मुस्लिम भी थे जो ये नही चाहते थे . लेकिन हाफिज़ साहब के उदार मन के आगे सब धीरे धीरे नत हो गए . हाफिज़ साहब शायद अमरावती के रहने वाले थे . उनकी उस्तादी मे एक बात थी जो मुझे बेहद भाती थी , वो संस्कृत के भी अच्छे जानकर थे .वो कहते थे कि तालीम और भाषा किसी मजहब की बपौती नही है . मैंने क़रीब तीन साल उर्दू कि तालीम ली . इस दौरान मैंने मजहबी बाते भी सीखी , मैं नमाज भी पढ़ने लगा था .उन दिनों गर्मियों मे रमजान का मुबारक महीना पड़ा था , मैंने तीस मे से तीन रोजे रखे थे . आज भी मैं रमजान के पवित्र महीने मे तीन रोजे रखता हूँ . दरअसल हमारे गाँव मे एक सौहार्द का माहौल है , एक साझा संस्कृति है . आज कल गाँव के बहुत से हिन्दू लड़के भी मस्जिद जाते है रमजान मे रोजे रखते है . मेरे कुछ मुस्लिम मित्र वैष्णव देवी के दर्शन के लिए हर साल जाते है . हमारे गाँव मे पहला सार्वजनिक दुर्गा उत्सव एक मुस्लिम ने शुरू किया था . गंगा जमनी तहजीब है हमारे गाँव मे .हाफिज़ साहब ने हमे सिखाया कि अपने मजहब के अलावा मजहब से भी आप बहुत कुछ सीख सकते है . वाकई मे ये ज़रूरी भी है कि मज्हबो के दरमियाँ फ़ैली दीवारों को अब तोड़ दिया जाये ,ताकि एक रोशनी मिले जो इंसान को इंसानियत सिखाती है ......

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