रविवार, 18 मई 2008

सूफी सिलसिले (२)/उमरानाला की बात (१९)

आज अठारह मई है । र.अह.बाबा दीवाने शाह की दरगाह मे यह तारीख सबसे पाक और मुबारक मानी जाती है .इस दिन ही बाबा साहब ने परदा (समाधि) लिया था .इस रोज़ उर्स का एक बड़ा मेला भी लगता है .कव्वाली का प्रोग्राम भी होता है .और बाबा की दरगाह मे जायरीन चादर फूल इत्र व तवारुफ़ (प्रसाद) चढाते हैं । यहाँ बाबा के हिंदू मुरीद नारियल आदि का प्रसाद भी चढाते हैं । अगर दिल्ली मे पिछले ६ सालों को मैं छोड़ दूँ ...तो लगभग शेष सभी सालों मे इस खास दिन का मैं साक्षी रहा हूँ ।
इस रोज़ इस पूरे पवित्र क्षेत्र की रगंत देखते ही बनती है .बाबा की दरगाह पर रोशनाई की जाती है ...दूर दूर से लोग आते है । पूरी रात जलसा होता है .मीठे चावल का प्रसाद जगह जगह बनता है जिसे प्रेम से सभी बिना किसी भेद भाव के साथ बैठकर खाते हैं । गुलाब इत्र की खुशबू पूरे माहौल में बहती है...एक अलग सा नूर पूरी फिजा मे होता है । बाबा की दरगाह पर काफी नामी कव्वालों ने प्रस्तुतियां दी हैं । कव्वाली मे आध्यात्म के रंग बहते हैं .....बाबा की स्तुति मे कव्वाल भाव विभोर होके सारी रात एक से बढ़कर एक कलाम पेश करते हैं ।
बचपन में हम तीनों भाई और हमारी बहिन पापा के साथ इस रोज़ साइकल पर बैठकर दरगाह जाते थे .कई दफे ऐसा भी होता था कि हम अठारह को दरगाह नही जा पाते थे तो पापा हम लोगो को अगले दिन सुबह साइकल से दरगाह लेकर जाते थे । शिरनी अगरबत्ती लोभान हम बड़ी श्रध्दा से बाबा के दर पे चढाते थे ,बाबा की दरगाह पर मैंने हमेशा से एक दिव्य शान्ति का अनुभव किया है ....मुश्किल के पलों मे आज भी मैं इस पवित्र दरगाह से शक्ति और ऊर्जा पाता हूँ । बाबा की दरगाह में जो आता है अपने जीवन मे एक अलौकिक अध्यात्मिक शान्ति को पाता है .इस दर की जियारत जीवन को समाधान देती है ।
बाबा की दरगाह में यूं तो हम साल भर मे कई बार जाते रहते है .गर्मियों कि छुट्टी मे मैं अक्सर शाम को घुमते हुए अपने मित्रों रामकृष्ण डोंगरे (राजीव) ,रामकृष्ण डोंगरे(तृष्णा) सुखदेव के साथ यहाँ जाया करता था । आज मुझे बाबा की दरगाह का वो माहौल बहुत याद आ रहा है ......मैं अपनी आत्मा की गहराइयों से बाबा के दर पर इस पोस्ट के माध्यम से अपना नमन भेज रहा हूँ .........
"जिस दर पे आके संवर जाते है मुकद्दर ,
ज़र्रे बन जाते है आफ़ताब
खुदा का नूर रूह को मिल जाता है
बाबा तुम्हारी दरगाह में ,
हरेक सुकून पाता है "
बाबा की दरगाह पर मेरे शत शत नमन !!

2 टिप्‍पणियां:

Chhindwara chhavi ने कहा…

तन्सरा का मेला या ...
बाबा का मेला ...
बाबा दीवाने शाह का मेला ...
बचपन से ही मेरे मन रहा है ...
आपने बहुत ही badiya लिखा है ...

badhai

Amit K Sagar ने कहा…

हाले-शाह को पढ़ना बहुत ही रोचक रहा. अपने गाओं की यादों जिसतरह बकौल किया है...बहुत खूब...येसा भी होना चाहिए...और अंत में: "जिस दर पे आके संवर जाते है मुकद्दर ,
ज़र्रे बन जाते है आफ़ताब
खुदा का नूर रूह को मिल जाता है
बाबा तुम्हारी दरगाह में ,
हरेक सुकून पाता है "

बहुत ही उम्दा...