जब गाँव से कोई शहर मे आता है, गाँव की मिटटी की खुशबू और, यादो की पोटली भी लाता है . उमरानाला पोस्ट यादों की गठरी मे से निकली कुछ बाते है .उमरानाला की लाल मिटटी की खुशबू है, जिसे मैं अखिल ब्रह्माण्ड मे कहीं भी कभी भी महसूस कर सकता हूं .
शुक्रवार, 25 जनवरी 2008
मुंशी प्रेमचंद बाग़ / उमरानाला की बात (०२)
"पहले बैल बाज़ार (पशु बाज़ार) उमरानाला में क्रिकेट का मैदान हुआ करता था . लेकिन धीरे धीरे यंहा ज़मीन बिकती गयी और मैदान की जगह मकानों ने ले ली . लेकिन सरकारी ज़मीन का एक छोटा सा टुकडा बच गया . जिस पर न तो खेल खेला जा सकता था न ही उसका किसी और काम इस्तेमाल किया जा सकता था .
मैदान के इस हिस्से पर अक्सर ज़मील चाचू की मित्र मंडली शाम को घुमाने और बैठने के लिए आया करती थी . चाचू का परिचय भी कर दूं ,वैसे तो ज़मील चाचू फुल टाइम टेलर रहे हैं ,लेकिन साहित्य के प्रति उनकी गहरी समझ और रूचि रही हैं . हर तरह के किताबे पढना चाचू का शौक रहा है . हिंदी उर्दू के अलावा ज़मील चाचू ने रूसी साहित्य को भी खूब पढ़ा. इस बेकार सी ज़मीन पर उनकी नज़र में जो बेहतर इस्तेमाल नज़र आया वो था इस जगह पर एक बाग़ बनाना .क़रीब दस साल पहले उन्होने गर्मियों से इस खाली जगह में पौधे लगाने का काम शुरू किया .... धीरे धीरे उनकी मित्र मंडली ने उनका इस काम में सहयोग करना शुरू कर दिया ।
क़रीब तीन साल बीतने के बाद ये बेकार सी पड़ी ज़मीन एक बागीचा नज़र आने लगी . चाचू ने अपने फेवरेट साहित्यकार प्रेम चन्द के नाम से इस बगीचे को नाम दिया "मुंशी प्रेमचंद बाग़ " . फूल खिलने लगे लोग यहाँ आने लगे गाँव के कुछ युवकों ने भी फिर साथ दिया . मुंशी प्रेमचंद की जयंती और पुण्यतिथि पर यहाँ बकायदा साहित्य की गोष्ठी होने लगी . इस बगीचे के पेड़ गर्मियों में छांव देने लगे ..... बगीचे का सौन्दर्य बढ़ने लगा .
मुंशी प्रेमचंद गाँव से प्यार करते थे , शायद यही वजह रही की प्यार से सिंचिंत और भावनावो से निर्मित इस उपवन की शोभा देखते ही बनती है .मन यहाँ सुकून पाता हैं , भावनाये प्रगाढ़ता और विचार शक्ति पाते हैं . इस बगीचे पर मैंने दैनिक भास्कर के लिए एक स्टोरी की थी . इस बगीचे को देख कर मुझे अक्सर ये एहसास होता है कि जिन्दगी मैं फूल कभी भी कहीं भी खिल सकते हैं बस थोड़े से प्रयास कि ज़रूरत है . मुंशी प्रेमचंद बाग़ एक वाटिका नहीं बल्कि जिन्दगी को संवारने का फलसफा है . जिन्दगी में खुशबू बिखेरने की कोशिश है .चाचू के इस गुलदस्ते की जितनी भी तारीफ की जाये कम है .
एक बंजर बेजान जगह पर गुल खिले .. यकीनन ये मानव प्रयासों की जीत है . इस बगीचे में आज कल हर्बल पौधे लगाये जा रहे है ,मुझे यकीन है आने वाले दिनों में "मुंशी प्रेमचंद बाग़ " लोगो को तकलीफो में आराम देगा . प्रेमचंद के साहित्य की तरह जो जीवन की निराशा में आशा का संदेशा देता है . उन फूलों की तरह जो काँटों में खिल कर मुस्काते है .खुशबू फैलाते है ।यूँ तो दिल्ली में सूखी घांस के मैदान भी पार्क और बगीचे होने का दंभ भरते है ,लेकिन मेरा मन शरीर और आत्मा "मुंशी प्रेमचंद बाग़ " की नर्म दूब पर लेटकर ही चैन पाता है . मुंशी प्रेमचंद बाग़ एक प्रवाह है जिसका असर मेरी रूह तक है .
सदस्यता लें
टिप्पणियाँ भेजें (Atom)
2 टिप्पणियां:
meetu,
umranala nahin mujhe laga tum kahin aur ki bat kar rahe ho...
umaranala me itna khubsurat bag... premchand bag...
jarur dekhana hoga...
tumhari kalam ho live darshan karati hai... vah bhai
RAMKRISHNA DONGRE
AMAR UJALA, NOIDA
+91-9873074753
भई छिंदवाड़ा में जो तीन साल बीते उन दिनों की याद आ गयी ।
एक टिप्पणी भेजें